※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम (पितृ-भक्ति)



पितृ-भक्ति

     इसी प्रकार श्रीराम की पितृ-भक्ति भी बड़ी अद्भुत थी रामायण पढ़नेवालों से यह बात छिपी नहीं है कि पिता का आज्ञा पालन करने के लिये श्रीराम के मन में कितना उत्साह, साहस और दृढ निश्चय था । माता कैकयी से बातचीत करते समय श्रीराम कहते हैं----

 अहं हि वचनाद् राज्ञ: पतेयमपि पावके ।
 भक्षयेयं विषं तीक्ष्ण पतेयमपि चारणवे ।।
             (वा० रा० २/१८/२८-२९)

 न ह्य्तो धर्मचरणं किन्चिद्स्ति महत्तरम्।
 यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिया ।।
  मैं महाराज के कहने से आगमें भी कूद सकता हूँ, तीव्र विषका पान कर सकता हूँ और समुद्र में भी गिर सकता हूँक्योंकि जैसे पिता की सेवा और उनकी आज्ञा का पालन करना है, इससें बढ़कर संसार में दूसरा कोई धर्म नहीं है ।
  इसी तरह के वहाँ और भी बहुत-से वचन मिलते हैं । उसके बाद माता कौसल्या से भी उन्होंने कहा है----

 नास्ति शक्ति: पितुर्वाक्यं समतिक्रमितुं मम् ।
 प्रसादये त्वां शिरसा गंतुमिच्छाम्य्हं वनम् ।।
                     (वा०रा० २/२१/३०)

 
मैं चरणों में सिर रखकर आपसे प्रसन्न होनेके लिये प्रार्थना करता हूँ । मुझमें पिता की वचन टालने की शक्ति नहीं है । अत: मैं वनको ही जाना चाहता हूँ ।
    इसके सिवा लक्ष्मण, भरत, और भरत और ऋषि-मुनियों सें बात करते समय भी राम ने पितृ-भक्ति के विषय में बहुत कुछ कहा है । श्रीरामचन्द्र के बालचरित्र का संक्षेप में वर्णन करते हुए भी यह बात कही गयी है कि श्रीराम सदा अपने पिता की सेवा में लगे रहते थे ।
   ‘एकपत्नीव्रत’ श्रीरामका एकपत्नीव्रत भी बड़ा ही आदर्श था । श्रीरामने स्वप्न में भी कभी श्रीजानकीजी के सिवा दूसरी स्त्री का वरण नहीं किया । सीता को वनवास देने के बाद यज्ञ में स्त्री की आवश्यकता होनेपर भी उन्होंने सीताकी ही स्वर्णमयी मूर्ति से काम चलाया । यदि वे चाहते तो कम-से-कम उस समय तो दूसरा विवाह कर ही सकते थे । उससे संसार में भी उनकी कोई अपकीर्ति नहीं होती, परन्तु भगवान् तो मर्यादापुरुषोत्तम ठहरे । उनको तो यह बात चरितार्थ करके दिखानी थी कि जिस प्रकार स्त्री के लिये पतिव्रत्यका विधान है, उसी तरह पुरुषका सम्बन्ध भोग भोगनेके लिये नहीं, अपितु धर्माचरण के लिये है ।
      भगवान् श्रीराम सीताके साथ प्रेम था, इसका कुछ दिग्दर्शन सीता-हरण के बाद का प्रसंग पढ़ने से हो सकता है । श्रीराम परमवीर, धीर और सहिष्णु होते हुए भी उस समय एक साधारण विरहोन्मत पागल कि भाँती पशु-पक्षी, वृक्ष-लता और पर्वतों से सीता का पता पूछते और नाना प्रकार के विलाप करते हुए एक वनसे दुसरे वनमें भटकते फिरते है एवं “हा सीते ! हा सीते !!” पुकार उठाते हैं । उस समय वर्णन बड़ा ही करुणापूर्ण और हृदयविदारक है ।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........ 
[ पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि । श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड ६८३,गीता प्रेस गोरखपुर ]