※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 18 अगस्त 2012

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम ( भ्रातृ-प्रेम )




श्रीराम का भ्रातृ-प्रेम

श्रीराम का भ्रातृ-प्रेम भी अतुलनीय था । लड़कपन से ही श्रीराम अपने भाइयों के साथ बड़ा प्रेम करते थे । सदा उनकी रक्षा कारते थे और उन्हें प्रसन्न रखने की चेष्टा करते थे । चारों भाई एक साथ घोड़े पर चढ़कर विचरण किया करते थे । रामचन्द्रजी को जो भी कोई भोजन या वस्तु मिलती थी, उसे वे पहले अपने भाइयों को देकर पीछे स्वयं खाते या उपयोग में लाते थे । यद्यपि श्रीराम का सभी भाइयों के साथ सामान भाव से ही पूर्ण प्रेम था, उनके मन में कोई भेद नहीं था, तथापि लक्ष्मण का श्रीराम के प्रति विशेष स्नेह था । वे थोड़ी देर के लिये भी श्रीराम से अलग रहना नहीं चाहते थे । श्रीराम का वियोग उनके लिये असह्य था, इसी कारण विश्र्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिये भी वे श्रीराम के साथ ही वन में गये । वहाँ राक्षसों का नाश करके दोनों भाई जनकपुर पहुँचे । धनुषभंग हुआ । तदनन्तर विवाह की तैयारी हुई और चारों भाइयों का विवाह साथ-साथ ही हुआ । विवाह के बाद अयोध्या में आकर चरों भाई प्रेमपूर्वक रहे ।

 कुछ दिनों के बाद अपने मामा के साथ भरत-शत्रुघ्न ननिहाल चले गये । श्रीराम और लक्षमण पिता की आज्ञानुसार प्रजा का कार्य करते रहे । श्रीराम के प्रेम भरे बर्तावसे, उनके गुण और स्वभाव से सभी नगर-निवासी और बाहार रहने वाले ब्राह्मणादि वर्णों के मनुष्य मुग्ध हो गये । फिर राजा दशरथ ने मुनि वसिष्ठ की आज्ञा और प्रजा की सम्मतिसे श्रीरामके राज्याभिषेक का निश्चय किया । राजा दशरथजीके मुख से अपने राज्याभिषेक की बात सुनकर श्रीराम माता कौसल्या के महल में आये । माता सुमित्रा और भाई लक्ष्मण भी वहीँ थे । उस समय अपने छोटे भाई लक्ष्मण से कहते हैं---

लक्ष्मणेमां  मया  सार्ध प्रशाधि त्वं  वसुन्धराम् ।

द्वितीयं  मेऽन्तरात्मानं  त्वामियं  श्रीरुपस्थिता ।।  

सौमित्रे भुन्क्षय भोगांस्त्वमिष्टान् राज्य्फ़लानि च ।

जीवितं   छापी   राज्यं      त्वदर्थमभिकामये  ।।
(वा०रा०२।४।४३-४४ )

  ‘लक्ष्मण । तुम मेरे साथ इस पृथ्वी का शासन करो । तुम मेरे दूसरे अन्तरात्मा हो । यह राज्यलक्ष्मी तुझे ही प्राप्त हुई है । सुमित्रानन्दन ! तुम मनोवांछित भोग और राज्य-फलका उपभोग करो । मैं जीवन और राज्य भी तुम्हारे लिये ही चाहता हूँ ।’
  इसके बाद इस लीला-नाटक का पट बदल गया । माता कैकेयी के इच्छानुसार राज्यभिषेक वन-गमन के रूप में परिणत हो गया । सुमन्त्र के द्वारा बुलाये जाने पर जब श्रीराम महलमें गये और माता कैकेयी से बातचीत करने पर उन्हें वरदान की बात मालूम हुई, तब उन्होंने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की । तदनन्तर वे माता कौसल्या से विदा माँगने गये,वहाँ भी बहुत बातें हुई ; परन्तु श्रीरामने एक भी शब्द भरत या कैकयी के विरुद्ध नहीं कहा, बल्कि भरतजी की बड़ाई करते हुए माता को धैर्य दिया और कहा कि ‘भरत मेरे ही समान आपकी सेवा करेगा ।’ उसी समय सीताको घरपर रहने के लिये समझाते हुए कहते हैं----------

भ्रातृपुत्रसमौ चापि द्रिष्ट्व्यो च विशेषत: ।

त्वया भरतशत्रुघ्नो प्राणै: प्रियतरौ  मम: ।।

(वा०रा० २।२६।३३ )

‘सीते ! मेरे भाई भरत-शत्रुघ्न मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय है । अत: तुम्हे उनको अपने भाई और पुत्रके समान या उससे भी बढ़कर प्रिय समझना चाहिये ।’
  वन गमन का समाचार सुनकर लक्ष्मण के मनमें भारी दुःख और क्रोध हुआ । उसे भी श्रीराम ने नीति और धर्म से परिपूर्ण बहुत ही मधुर और कोमल वचनों से शान्त किया । फिर जब लक्ष्मण ने साथ चलने के लिये प्रार्थना  की, उस समय उनको वहीँ रहने के लिये समझाते हुए श्रीराम ने कहा है----लक्षमण ! तुम मेरे स्नेही, धर्मपरायण, धीर और सदा सन्मार्ग मे स्थित रहने वाले हो । मुझे प्राणों के समान प्रिय, मेरे वश मे रहने वाले, आज्ञापालक और सखा हो ।

  बहुत समझाने पर भी जब लक्ष्मण ने अपना प्रेमाग्रह नहीं छोड़ा, तब भगवान् ने उनको संतुष्ट करने के लिये अपने साथ ले जाना स्वीकार किया । वन में रहते समय भी  श्रीरामचन्द्रजी  सब प्रकार से लक्ष्मण और सीता को सुख पहुँचाने तथा प्रसन्न रखने की चेष्टा किया करते थे ।

 भरत के सेना सहित चित्रकूट आने का समाचार पाकर जब श्रीराम-प्रेम के कारण लक्ष्मण क्षुब्ध होकर भरत के प्रति न कहने योग्य शब्द कह बैठे, तब श्रीराम ने भरत की प्रशंसा करते हुए कहा-    लक्ष्मण ! मैं सच्चाई से अपने आयुध की शपथ लेकर कहता हूँ कि मैं धर्म,अर्थ,काम, और साडी पृथ्वी-सब कुछ तुम्ही लोगों के लिये चाहता हूँ । लक्ष्मण ! मैं राज्य को भी भाईयों कि भोग्य सामग्री ओर उनके सुख के लिये ही चाहता हूँ । तथा मेरे विनयी भाई ! भरत, तुम और शत्रुघ्न को छोड़कर यदि मुझे कोई भी सुख होता हो तो उसमें आग लग जाये । मैं समझता हूँ कि मेरे वन मे आने की बात कानों मे पड़ते ही भरत का हृदय स्नेह सें भर गया है, शोक सें उसकी इन्द्रियाँ व्याकुल हो गयी है, अत: वह मुझे देखने के लिये आ रहा है ।उसके आने का कोई दूसरा कारण नहीं है ।”

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........ 
[ पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि । श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड ६८३,गीता प्रेस गोरखपुर ]