※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 29 मार्च 2014

गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण १४, शनिवार, वि०स० २०७०


** गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य **
गत ब्लॉग से आगे......उदारशिरोमणि सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार गोपियों का सम्मान किया, तब गोपियों के मन में ऐसा भाव आया कि संसार की समस्त स्त्रियों में हमीं सर्वश्रेष्ठ हैं, हमारे समान और कोई नहीं है | जब भगवान् ने देखा कि इन्हें कुछ गर्व हो गया है, तब वे उनका गर्व दूर करने के लिए अपनी प्रधान सखी (राधिकाजी) को लेकर अन्तर्धान हो गये | भगवान् के अन्तर्धान होते ही सब गोपियों में खलबली मच गयी, वे भगवान् श्रीकृष्ण के वियोग में अत्यंत व्याकुल हो गयीं और वनमें श्रीकृष्ण को खोजने लगीं | जब बहुत खोजनेपर भी भगवान् नहीं मिले, तब वे परस्पर में ही भगवान् की लीलाओं का अनुकरण करने लगीं | कोई श्रीकृष्ण बन गयी और कोई गोपी; इस प्रकार रासलीला करने लगीं |

        इधर जब भगवान् राधाजी को साथ लेकर वन में जा रहे थे, तब राधाजी के मन में यह अभिमान आया कि मैं सबसे श्रेष्ठ हूँ, इसीलिए भगवान् सब गोपियों को छोड़कर मुझे साथ ले आये | इसके बाद चलते-चलते राधाजी ने भगवान् से कहा कि ‘मैं थक गयी हूँ, मुझसे अब चला नहीं जाता | इसलिए आप मुझे अपने कंधेपर बिठाकर ले चलिए |’ भगवान् बोले—‘ठीक है |’ ऐसा कह भगवान् बैठ गये और जब राधिका जी भगवान् के कंधे पर बैठने लगीं, तब राधिकाजी के अभिमान को दूर करने के लिए भगवान् झट अन्तर्धान हो गये | भगवान् को अन्तर्धान हुए देखकर राधिकाजी भी विलाप करने लगीं | वे ‘हा कृष्ण ! हा कृष्ण !’ कहती हुई कृष्ण को खोजने लगीं |

         उधर गोपियाँ भी भगवान् श्रीकृष्ण और राधिकाजी को खोजने के लिए वन में घूमने लगीं | घूमते-घूमते उन्हें श्रीकृष्ण और राधिकाजी के पदचिह्न मिले | उन चिह्नों को देखती हुई गोपियाँ आगे बढ़ गयीं | आगे जानेपर उनको श्रीकृष्ण के बैठने का चिह्न मिला; किन्तु उससे और आगे बढ़ने पर केवल राधिकाजी के ही पदचिह्न मिले, श्रीकृष्ण के नहीं | फिर वे  सखियाँ राधिकाजी के पदचिह्नों के पीछे-पीछे आगे बढ़ी और कुछ दूर जानेपर उनको विलाप करती हुई राधिकाजी मिल गयीं | गोपियों ने राधिकाजी से पूछा—‘श्रीकृष्ण कहाँ हैं ?’ राधिकाजी ने कहा—‘भगवान् मेरे साथ में यहाँ तक आये थे, किन्तु मैंने कुटिलतावश उनका अपमान किया; इसलिए वे मुझे भी छोड़कर चले गये |’

         तब विरह में व्याकुल हुई सभी गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण को आर्तभाव से पुकारने और उनके गुणों का गान करने लगीं | उनको अत्यन्त व्याकुल देखकर भगवान् सहसा सबके बीच में प्रकट हो गये |

         उस समय गोपियों ने भगवान् पूछा—‘नटनागर ! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालों से ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करनेवालों से भी प्रेम करते हैं और कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते | इन तीनों में तुम्हें कौन-सा अच्छा लगता है ?’

        भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—‘मेरी प्यारी सखियों ! जो प्रेम करनेपर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर है | न तो उनमें सौहार्द है और न धर्म ही | उनका प्रेम केवल स्वार्थ के लिए ही है, इसके सिवा उनका और कोई प्रयोजन नहीं | गोपियों ! जो लोग प्रेम न करनेवाले से भी प्रेम करते हैं, जैसे स्वभाव से ही करुणाशील सज्जन और माता-पिता—उनका हृदय सौहार्द से, हितैषिता से भरा रहता है और उनके व्यवहार में निश्छल धर्म भी है | कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालों से भी प्रेम नहीं करते | ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं | एक तो वे, जो अपने स्वरुप में ही मस्त रहते हैं | दूसरे वे, जो आप्तकाम यानी कृतकृत्य हो चुके हैं | तीसरे वे हैं, जो अकृतज्ञ यानी कृतघ्नी हैं और चौथे वे हैं, जो अपना हित करनेवाले परोपकारी गुरुतुल्य लोगों से भी जान-बूझकर द्रोह करते हैं | गोपियों ! मैं तो प्रेम करनेवालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा करना चाहिए | जैसे निर्धन मनुष्य को कभी बहुत-सा धन प्राप्त हो जाय और फिर खो जाय तो उसका चित्त खोये हुए धन की चिन्ता से भर जाता है, अन्यत्र नहीं जाता, वैसे ही मैं भी उनकी चित्तवृत्ति और भी मुझमें लगी रहे, निरंतर मुझमें ही लगे रहे, इसीलिए ऐसा करता हूँ | तुम्हारी चित्तवृत्ति अन्यत्र कहीं न जाय, मुझमें ही लगी रहे, इसीलिए तुमलोगों से प्रेम करता हुआ ही मैं तुम्हारे अभिमान को नष्ट करने एवं प्रेम की वृद्धि करने के लिए छिप गया था | अतः तुमलोग मेरे प्रेम में दोष मत निकालो | तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ | मुझसे तुम्हारा यह मिलन सर्वथा निर्मल और निर्दोष है | यदि मैं अमर शरीर से अनन्त कालतक तुम्हारे प्रेम का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता | मैं तो तुम्हारा ऋणी हूँ |’ ऐसा कहकर वे गोपियों के साथ पुनः रासलीला करने लगे |..शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७, गीताप्रेसगोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!